“हर घर तिरंगा”अभियान की हवा निकाल रहा “हर खेत यूरिया अभियान”किसानों द्वारा जिताऊ नेता नदारद, प्रशासन लापता
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ब्यूरो रिपोर्ट,इंडिया टाईम्स न्यूज एजेंसी
सिद्धार्थ नगर(12/08/2025)
किसानों द्वारा जोर जोर से नारेबाजी करके जिताऊ नेता भी आज कही दूर दूर तक नजर नहीं आते हैं और अधिकारी काश एक दिन भी “हर खेत यूरिया”अभियान चला देते तो किसानों की ऐसी दुर्दशा नहीं होती जैसी आज किसानों की स्थिति है।नारे भी लगाओ और अधिक दाम भी दो इस दोगलेपन का बोझ हम आप कब तक उठाएंगे,एक बार विचार अवश्य करिए…
खाद की ऐसी किल्लत हुई कि किसानों को रातजगा करके लाईनों में घंटों खडा रहना पडता है उसके बाद भी निराश होकर लौटना पडता है।शासन प्रशासन एक बोरी खाद दिलानें में नाकाम दिखा तो कैसे हम मान लें कि हम आजादी से सो सकते है।जनपद -सिद्धार्थ नगर में उर्वरक की कमी नहीं है लेकिन अधिक पैसा कमाई के चक्कर में डम्प कर लिया गया है।
सूत्रों से पता चला है कि नेपाल देश भेजने से अधिक कमाई हो रही है और खाद का ब्लैक मार्केट में बिकना भी कमी होने का सबसे प्रमुख कारण रहा है।पैसे का असर दिखाई भी दे रहा है और किसानों के बर्बादी का सबब भी दिखाई पड रहा है। खेतों में लहलहाती फसल रही पुकार आवाज सुनकर किसान दुकानों की तरफ दौड़कर निराश होकर रहा है लौट। किसान रात के अंधेरे में मुंह छिपाकर जीवन यापन कर रहा है खेतों की तरफ नजर नहीं फेरता वहां प्रशासनिक नाकामी के सवालों की बौछार होने लगती है और वह निरुत्तर हो जाता है।
चुनावों में नेताओं के लिए “जोर जोर”से नारे लगाकर सदन में पहुंचाने वाला गरीब किसान आज अपना मुंह छिपाता घूम रहा है।जाति का हवाला देकर वोट लेने वाले राजनेता आज दूर दूर तक नही नज़र आते हैं। किसानों को लालीपाप देकर हमेशा से ऐसा होता आ रहा है और भविष्य में इसके तेज होने के आसार भी दिखाई पड रहे हैं।अब तो युवा पीढ़ी भी नेताओं के रटाए नारों को रट रही है जो कि भविष्य के लिए पार्टियों के लिए उर्वरक का काम करेगा।
खेत मे खाद पडे या न लेकिन वोटरों में समय समय पर खाद पडता रहता है।फागू बाबा का मजार तोड़कर कुछ खाद पानी देकर मनोबल बढ़ाया गया था और फतेहपुर में एक प्राचीन मकबरे में प्रवेश कराके हवा पानी दे दिया गया और अब ऐसा दिखाई पड रहा है कि राजनीतिक फसल लह लहा रही है।
सरकारी लगभग सभी व्यवस्थाएं हाशिए पर हैं अव्यवस्था की शिकार और भ्रष्टाचार का कारखाना बन चुकी है सुधार की जिम्मेदारी हमारे प्रतिनिधियों की होती है लेकिन वो भी भाग रहे हैं।जनता को जख्म दर जख्म बार बार आजादी से दिए जाते रहे हैं लेकिन हमारी याददाश्त इतनी कमजोर है कि हमें कुछ याद नही रहता है। सरकारी स्कूलों, चिकित्सालयों की ऐसी दुर्दशा हो चुकी है कि हम कल्पना भी नहीं कर सकते थे कि आजादी के बाद भी गुलामी से बद्तर जिंदगी ज़ीने के लि
ए विवश होंगे।